Wednesday, June 4, 2008

Khoya huya sa kuch

Well, here is another ghazal, which has been on my mind for sometime now. A typical "Nida Fazli" stuff about life and our involvement in it.

देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ,
हर वक्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ|

होता है यूँ भी रास्ता खुलता नही कहीं,
जंगल सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ|

साहिल की गीली रेत पर बच्चों के खेल सा,
हर लम्हा मुझमें बनता बिखरता हुआ सा कुछ|

फ़ुरसत ने आज घर को सजाया कुछ इस तरह,
हर शय में मुस्कुराता है रोता हुआ सा कुछ|


This is from Nida's book, "Khoya Huaa Sa Kuch". By the way, the ghazal is a 14 syllable beher named: muzaari musamman akhrab makfuuf mahzuuf with the pattern: 221-2121-1221-212

Can you decode this yourselves? :-)

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